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संघ की गुरु पूजन और गुरु दक्षिणा की अनूठी भारतीय परंपरा

गुरु पूर्णिया आध्यात्मिक पथ पर हमारा मार्गदर्शन करने में गुरु की अमूल्य भूमिका का स्मरण कराता है।

श्री कृष्ण भगवान ने गीता मे कहा है
“आचार्यम् माम् विजानीयात्”
गुरु को मेरा ही स्वरूप समझो
यह शिक्षा धरती पर भगवान के दिव्य प्रतिनिधि के रूप में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करती है।
वेद व्यास जी भारतवर्ष के साथ उन्होंने सम्पूर्ण मानव जाति का मार्गदर्शन किया। भगवान वेदव्यास जगत् गुरु हैं। इसीलिए कहा है- “व्यासो नारायणम् स्वयं”- इस दृष्टि से गुरुपूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा गया है।
प्राचीन भारत की सदियों पुरानी गुरु-शिष्य परंपरा को आगे बढ़ाना । प्राचीन भारत में छात्र संतों के आश्रमों में रहते थे और अपनी शिक्षा और प्रशिक्षण पूरा करने के बाद गुरु के प्रति सम्मान के रूप में दक्षिणा देते थे । हिंदू परंपरा में, भेंट का मूल्य मायने नहीं रखता था, बल्कि जो मायने रखता था वह था दक्षिणा के प्रति कृतज्ञता का भाव। गुरु जो भी भेंट करते थे, उसे समान संतुष्टि के साथ स्वीकार करते थे।

इस पवित्र परंपरा को आधुनिक समय में आरएसएस ने अपनी शाखा में पुनर्जीवित किया , जो इसकी स्थापना के समय से ही चली आ रही है और आज भी निभाई जाती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने गुरु स्थान पर भगवाध्वज को स्थापित किया है। भगवाध्वज त्याग, समर्पण का प्रतीक है। स्वयं जलते हुए सारे विश्व को प्रकाश देने वाले सूर्य के रंग का प्रतीक है। संपूर्ण जीवों के शाश्वत सुख के लिए समर्पण करने वाले साधु, संत भगवा वस्त्र ही पहनते हैं, इसलिए भगवा, केसरिया त्याग का प्रतीक है। अपने राष्ट्र जीवन के, मानव जीवन के इतिहास का साक्षी यह ध्वज है। यह शाश्वत है, अनंत है, चिरंतन है।
संघ तत्व पूजा करता है, व्यक्ति पूजा नहीं। व्यक्ति शाश्वत नहीं, समाज शाश्वत है। संपूर्ण हिन्दू समाज को राष्ट्रीयता के आधार पर, मातृभूमि के आधार पर संगठित करने का कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है। इस नाते किसी व्यक्ति को गुरुस्थान पर न रखते हुए भगवाध्वज को ही गुरु माना है।

इस पर्व के माध्यम से स्वयंसेवकों को याद दिलाया जाता है कि संघ में व्यक्ति का नहीं विचार का महत्व है, इसीलिए किसी व्यक्ति को गुरु न मानकर संघ ने भगवा ध्वज को गुरू माना है. भगवा ध्वज को गुरु मानने का कारण यह है कि यह भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा का अभिन्न अंग रहा है जिसमें इसे त्याग, बलिदान व शौर्य का प्रतीक माना गया है
प.पू. डॉ. हेडगेवार जी ने फिर से संपूर्ण समाज में, प्रत्येक व्यक्ति में समर्पण भाव जगाने के लिए, गुरुपूजा की, भगवाध्वज की पूजा का परंपरा प्रारंभ की।

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